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गमछे की गंध / ज्ञानेन्द्रपति

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चोर का गमछा
छूट गया
जहां से बक्सा उठाया था उसने,
वहीं-एक चौकोर शून्य के पास
गेंडुरियाया-सा पड़ा चोर का गमछा
जो उसके मुंह ढंकने के आता काम
कि असूर्यम्पश्या वधुएं जब, उचित ही, गुम हो गई हैं इतिहास में
चोरों ने बमुश्किल बचा रखी है मर्यादा
अपनी ताड़ती निगाह नीची किए

देखते, आंखों को मैलानेवाले
उस गर्दखोरे अंगोछे में
गन्ध है उसके जिस्म की
जिसे सूंघ/पुलिस के सुंघिनिया कुत्ते
शायद उसे ढूंढ निकालें
दसियों की भीड़ में
हमें तो
उसमें बस एक कामगार के पसीने की गन्ध मिलती है
खटमिट्ठी
हम तो उसे सूंघ/केवल एक भूख को
बेसंभाल भूख को
ढूंढ़ निकाल सकते हैं
दसियों की भीड़ में