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गमछे बिछा के सो गईं / प्रताप सोमवंशी
Kavita Kosh से
गमछे बिछा के सो गईं घर की जरूरतें
जागे तो साथ हो गईं घर की जरूरतें
रोटी के लिए उसका जुनूं दब के मर गया
बचपन में ही डुबो गई घर की जरूरतें
जिन बेटियों को बोझ समझता था उम्र भर
कांधों पे अपने ढो गईं घर की जरूरतें
उस दिन हम अपने आप पे काबू न रख सके
जिस दिन लिपट के रो गईं घर की जरूरतें
उनमें हुनर बहुत था और हौसला भी था
देहरी में जाके खो गईं घर की जरूरतें