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गम की नदी में उम्र का पानी / शीन काफ़ निज़ाम

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गम की नदी में उम्र का पानी ठहरा-ठहरा लगता है
ये फिकरा झूठा है लेकिन कितना सच्चा लगता है

जीत के जज्बें ने क्या जाने कैसा रिश्ता जोड़ दिया
जानी दुश्मन भी मुझ को अब मेरा अपना लगता है

‘पापा’ ‘पापा’ कह कर मेरे पास नही आया कोई
आज नही है वो, तो घर भी सहमा सहमा लगता है

चार पलों या चार दिनों में होगा वो महदूद मगर
उम्र के घर में जिस्त का आंगन फैला फैला लगता है

इस बस्ती की बात न पूछो इस बस्ती का कातिल भी
सीधा-सादा, भोला-भाला, प्यारा-प्यारा लगता है

दरवाजें तक छोड़ने मुझ को आज नही आया कोई
बस, इतनी-बात है लेकिन जाने कैसा लगता है