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गया शबाब ने पैग़ाम-ए-वस्ल-ए-यार आया / मिर्ज़ा रज़ा 'बर्क़'

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गया शबाब ने पैग़ाम-ए-वस्ल-ए-यार आया
जला दो काट के इस नख़्ल में न बार आया

क़दम अदम में ये कह कर रखूँगा ऐ क़ातिल
हज़ार शुक्र कि मैं बार-ए-सर उतार आया

मिसाल-ए-मेहर वो क़ामिल शुआ-ए-आरिज़ से
हज़ार तेग़-ए-क़ज़ा खींचें एक बार आया

अज़ाँ दी काबे में नाकूस दैर में फूँका
कहाँ कहाँ तुझे आशिक़ तेरा पुकार आया

तेरी तलाश में ऐ माह मिस्ल-ए-रेग-ए-रवाँ
न मेरी ख़ाक को बाद अज़ फ़ना क़रार आया

फँसा जो ज़ुल्फ़ में छूटा वो कै़द-ए-हस्ती से
रिहा हुआ जो तेरे दाम में शिकार आया

हमेशा देख के मजनूँ को ख़ल्क़ कहती थी
अदम से ‘बर्क़’ की आमद है पेश-कार आया