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गयी फ़स्ल-ए-बहार गुलशन से / मरदान अली ख़ान 'राना'

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गयी फ़स्ल-ए-बहार[1] गुलशन से
बुलबुलों उड़ चलो नशेमन[2] से

फ़ातेहा भी पढ़ा न तुर्बत[3] पर
जाके लौट आए मेरी मदफ़न[4] से

मुझको काफ़ी थी क़ैद-ए-हल्क़ा-ए-ज़ुल्फ़[5]
बेड़ियाँ क्यूँ बनाईं आहन[6] से

ज़ुल्फ़ के पेच[7] से न रह ग़ाफ़िल[8]
दोस्ती कर दिला[9] न दुश्मन से

हो गिरेबाँ का चाक[10] ख़ाक रफ़ू
तार हाथ आए जब न दामन से

नाज़-ओ-इश्वा[11] नया नहीं सीखा
शोख़ तर्रार[12] है लड़कपन से

छोड़ कर तुम अगर गए तन्हा
जी निकल जाएगा मेरे तन से

है कई दिन से मुन्तज़िर[13] 'राना'
जल्वा दिखलाओ आ के चिलमन से

(1. बहार का मौसम; 2. आशियाना/घोंसला; 3. क़ब्र; 4. दफ्न करने की जगह/क़ब्र; 5. जुल्फों के फंदे की क़ैद; 6. लोहा; 7. फंदा; 8. बेपरवाह; 9. दिल; 10. फटा हुआ; 11. अभिमान और अंदाज़; 12. तेज़/चालाक; 13. इंतेज़ार में)

शब्दार्थ
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