गरज बरस के कभी मिट्टीयों को पानी कर
नफ़स नफ़स मिरे एहसास में रवानी कर
ये बस ज़मीन के रंगों में खो के रह गया है
बदन का रंग बदल और आसमानी कर
गुज़ार और कहीं अपने बाक़ दिन लेकिन
मिरे बदन में ठहर और फिर जवानी कर
मैं इस ताअत-ए-बे-जा से ऊब जाता हूँ
चल आज बंदा-ए-दिल मुझ से सरगरानी कर
मिटा दे आज सभी हर्फ़ लौह-ए-क़िस्मत से
फिर उस के बाद कोई दूसरी कहानी कर
ख़मोशियों के मुक़द्दर में सिर्फ़ चीख़ें हैं
इसी लिए कोई आवाज़ दरमियानी कर