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गरदनें ख़िदमत में हाज़िर हैं हमारी, लीजिए / विजय किशोर मानव

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गरदनें ख़िदमत में हाज़िर हैं हमारी, लीजिए।
भोंथरे ही ठीक हैं, चाकू न पैने कीजिए।।

तौबा कर ली, आदमी बनने चला था मैं सुबह
सारा दिन घूमा हूं अपनी लाश कंधों पर लिए।

दाना-पानी तक को ये पिंजरा नहीं खोला गया,
जब से मैंने कह दिया है-मेरे डैने दीजिए।

हम हुए सुकरात, सारे दोस्तों के बीच में
‘एक प्याला और’, कोई कह रहा था लीजिए।

आपको चेहरे नहीं, बिखरी मिलेंगी बोटियां
आदमी को आदमी के सामने तो कीजिए।

छत नहीं, छाया नहीं, पांवों तले धरती नहीं,
आंकड़ों ने लिख लिया है चैन से हम भी जिए।