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गरमी के दुपहरिया धूप / अनिरूद्ध प्रभास

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दारु सें मातलॅ
सौतारॅ रं नाचै छै
कंठ में लसकलॅ मंतर पंडितॅ के
कसी केॅ फेरू सें गोस्साय केॅ बाँचै छै,
तावॅ सें तबलँ कुम्हारँ के आबा
मनें नै मानै तेॅ
रही रही आंचै छै,

ऐसने छै सूरजॅ के रूप,
चैतॅ के दुपहरिया धूप।
भरुऐली आंखी सें
बिचारी केॅ लोल
हकसै छै बगरो आ कौआ-बकोल,
पांख पसारी केॅ मनॅ कॅ मारी केॅ

मैना बेचारी छै चुप,
चैतॅ के दुपहरिया धूप?

जुआ में रहलॅ जुआरी रं,
सुक्खा में पड़लँ बुआरी रं,
धरती के फाटलऽ कियारी रं,
व्याकुल छै लोग।

पूरबै करतै,
लिखलॅ छै जतनाय टा भोग।
पंडित उचारै छै पतरा, बनावै छै बरखा के जतरा,
झलकै छै चारो दिस खतरा,
वनै छै बान्हॅ पर बान्ह,
मलाकि, भूखलँ लुखिया के भोरैं सें
खटते छूटलै परान।
यहेॅ रं आदमी के होतै ओरान।
के बोलतै? सब छै चूप।
गरमी के दुपहरिया धूप।