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गरमी / बालकृष्ण गर्ग
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गर्मी से सब परेशान हैं,
तपे हुए अब घर-मकान हैं।
दाहक रहा सूरज का गोला,
भेद सभी अब लू ने खोला।
धरती को आया बुखार है,
बादल ही तीमारदार है।
धरती रोज करेगी लंघन,
जब तक पिघल न जाए सावन।
[चमाचम, जुलाई 1975]