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गरिबिया बनल सवतिया / शार्दूल कुशवंशी

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गरिबिया बनल सवतिया...
भारी पर भारी भईल जाला, दिन अऊर रतिया...

केकरा के कहीं, आपन सरकार हो...
रजऊ के नइखे, कवनो रोजगार हो...
चाहे तोड~ कवनो धारा...चाहे भूखी कवनों भारा...
तड़पत~छछनत रजऊ...धावे बाज़ार हो...
केकरा के कहीं आपन सरकार हो।

धावे ले शिमला, धावले राजस्थान हो...
धावे कलकत्ता, धावे ले कृस्तान हो...
चालीस गुजर गईल, नईखे मकान हो...
प्रदर्शन में गईले, मिलल जेल के किवाड़ हो...
केकरा के कहीं, आपन सरकार हो।

चबेनी पर गुजारा होला...
निमक-मरचाई के तरसावा होला।
दीया जलावे में, करोणों के हो जाले खरचा...
तबो नईखे एकर चरचा...
का बदली, का रही, कुछ नईखे आसार हो।
रजऊ के नईखे मिलत रोजगार हो।

कहेलन अमीरन, खुद से नौकरी सिरजाव~
घर में फूटी कौड़ी नईखे, होली मनाव~
चूलू भर तेल बिना, आँख किचियाता...
पेट नईखे भरल त~बबुआ खिसियाता...
का करीं, कहाँ मरीं, फ़सरी जोहाता।
लईकन के मुँह देखी, मन घबराता।
लागत बाकि, गोड़ मोरे झांकता ईनार हो...
केकरा के कहीं, आपन सरकार हो...