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गर्त के मेंढ़क / रणजीत

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इस गर्त के हम जीव हैं
इसके किनारे या मझधारे
बैठते या तैरते हैं
यही हमारी जन्म-भूमि है
यहीं जन्म लेते-पलते हैं
और परम निश्रेयस भी है यही हमारा
जब अभय होते हैं हम
गर्व से बाहर निकलते हैं
किनारे बैठ तीखी धूप में तन सेकते हैं
आसपास की हरी घास में घूमते हैं
और तब छाती फूलाकर गर्व से
मानसिक विकास के दम भरते हैं
बात करते हैं समानता, स्वतन्त्रता, भ्रातृत्व की
और उन प्रतिगामियों को कोसते हैं
जो अभी तक गर्त में लेटे हुए हैं
टेरते हैं: उनका आह्वान करते हैं
ज्ञान के विज्ञान के प्रकाश में बुलाते हैं
पर ज्यों ही कुछ खटक जाये
कूद पड़ते हैं उसी क्षण
इसी गर्त में
भूल जाते हैं सभी को
ज्ञानों को विज्ञानों को
अपने ऊँचे आदर्शों को
रह जाता है सिर्फ कीच से भरा गर्त यह
जो कि हमारा आदि-अंत है!