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गर्दिश ने दबाया कभी गर्दूं ने उछाला / कांतिमोहन 'सोज़'

गर्दिश ने दबाया कभी गर्दूं<ref>आकाश</ref> ने उछाला ।
सब्ज़े का उदू<ref>वनस्पति का दुश्मन</ref> था कभी सूखा कभी पाला ।।

कैलाश न जाने की ज़रूरत न हिमाला
घेरो कोई शहराह<ref>राजमार्ग</ref> बना डालो शिवाला ।

सुनते हैं कि मयख़ाने में कल हाल अजब था
मख्मूर था नासेह<ref>उपदेशक पिए हुए था</ref> उसे मस्तों<ref>पियक्क्ड़ों</ref> ने संभाला ।

क़ुदरत का है क़ानून सभी उसके हैं ताबे<ref>अधीन</ref>
दुबला हुआ दहक़ान<ref>किसान</ref> तो मोटा हुआ लाला ।

हर हाल में चलता रहा सरकार का कोल्हू
तिल में से कभी तेल निकाला कभी डाला ।

बेकारों के लश्कर से कोई एक तो कम हो
लैला को जो मिल जाय कोई चाहनेवाला ।

मक़बूल हुआ सोज़ ये सुर्ख़ी<ref>शीर्षक</ref> ही बहुत है
अब और लगाओ न मियां मिर्च-मसाला ।।

शब्दार्थ
<references/>