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गर्द की तरह गुज़र जाएंगे ठहरो भाई / निश्तर ख़ानक़ाही
Kavita Kosh से
गर्द की तरह गुज़र जाएंगे ठहरो भाई
रमते जोगी है, बहुत हमसे न उलझो भाई
इसमें शायद कहीं पानी की कोई बूँद भी हो
रेत मुट्ठी में ज़रा भर के निचोड़ो भाई
तुमसे लाखों हैं जो पत्थर के बने बैठे हैं
इस तिलिस्मात में मुड़-मुड़ के ना देखो भाई
आख़िरी पत्ता तो गिर जाने दो इस मौसम का
अब जो आ ही गए, कुछ देर तो बैठो, भाई
कुछ तो ख़्वाबों के परिंदों को बसेरा दे दो
टूटती रात है अब और न जागो भाई
हम तो झोंका हैं ख़्यालों का, न पकड़ों हमको
सिर्फ़ महसूस करो, मुँह से न बोलो भाई
ख़ाक को कीमिया* करने का हुनर हममें नहीं
हम निकम्मे हैं बहुत, हमको न चाहो भाई
1-कीमिया*--रसायन