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गर्भवती साथी / सुशील मानव

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न ऐंड़, न बेंड़, ना उतान
राहत, किसी सूरत नहीं
साँसों पे जैसे कोई अँड़ी की कड़ी लगाए बैठ जाता
न आगे सरकता, न पीछे
भीतर की सारी हलचल रुक सी जाती
साँसे साँसत में पड़ जातीं
आँखों में उमग आते बेचैनी के स्तन
संक्रमण के कैलेंडर में मेरी साथी का नौवाँ महीना चल रहा
सीधे खड़े होना ही हो मुहाल जब
गायनोकोलॉजिस्ट कहती, खूब चला-फिरा करो
इससे तुम्हें जनने में, दिक्क़त कुछ कम होगी
भोजन की पौष्टिकता, मात्रा और नफ़ा-नुकसान की सलाह पर
मेरी साथी झल्लाकर कहती, मुझसे
कहाँ खाऊँ?
गर्भाशय का बढ़ता आयतन मेरा उदर खाए जा रहा
फूलकर खूब बाहर निकल आये पेट ने
तानकर मेरी रीढ़ को, बना रखा है कमान
पीर तो ज्यूँ पेड़ू पे रखा तीर हो
चलती है तो लहू लहू हो उठती हूँ पोर पोर मैं

कुछ अनुतापित, कुछ सशंकित
बगल में लेटा अपराधबोध से भरा मैं
कभी छाती, कभी पेड़ू, कभी पीठ सहलाता साथी की
लगते फ़ाल्गुन की गुलाबी रातें वो जोला फूँकती, कि
झुँझलाकर देह के सारे कपड़े, उतारती पवारती कहती वो
मेरा गर्भाशय कोई कमरा नहीं था
क्यों बिठा दिया तुमने, किसी को बनाकर किरायेदार
देखो! देखो तो उसे
उसने मेरे भीतर जला रखा है अलाव
भभक रहा पूरा भीतरपन मेरा
भीतर ही भीतर
कि मैं नहीं ले पा रही हूँ साँस
बस, अब किसी भी तरह विलगा दो
विलगा दो उसे मेरी देह से
कि अब, मर ही जाऊँगी मैं
इस कदर मुझमें उसने, मचा रखा है उत्पात
और मैं, दर्द से छँहरते साथी के मन में धर पाँव
उसके सब्र की मेराड़ियाँ छोपता,पिड़ियाता।

मातृत्व को स्त्री की परिपूर्णता बताकर
नहीं बहलाना चाहता मैं उसका मन
मैं जानता हूँ
माँ का महिमामंडन
एक सफल पाखंड के सिवाय और कुछ नहीं
गर्भधारण, अस्तित्व के बिना पे !
स्त्री होने की सज़ा नहीं तो क्या ?
मेरा यानी पुरुष का कुछ टूटकर स्त्री में मिलना
कितना कुछ उथल-पुथल मचा देता है साथी में
हाँ, मेरे ही वीर्यपात् से संपृक्त हो
संक्रमित है मेरी साथी
जबकि भलीभाँति जानता हूँ मैं
संक्रमण अस्तित्व के सवाल पर खड़ा प्रश्नचिन्ह है

साथी में एक जीव उगा देना
मेरे पितृत्व की परिभाषा नहीं है
सिर्फ एक जैविक परिघटना भर नहीं
स्त्रीत्व पर सबसे बड़ा हमला है वीर्यपात्
और गर्भावस्था में रक्ताल्पता
संक्रमण से आत्मबचाव की प्रतिक्रिया में क्षत हुई स्त्री का पराक्रम
जब मेरी साथी कहती है मुझसे
गर्भावस्था उसका आत्मगौरव नहीं बल्कि यातनारत स्त्री का आत्मबलिदान है
अनिद्रा, उकताई उसकी पलकों पर पीड़ा का रतजगा है
तो मैं तिरोहित कर देता हूँ चुपचाप
उसकी पीड़ा की अनुभूति करने का अपना पक्ष
अपने अपराध से बचाव का ये शायद,
सबसे घटिया और लचर तर्क है
सर्जना करती साथी की जाँघ, नितंब, स्तन और पेड़ू पर ऊपर उदर तक
लिपटी ऊर्ध्वाधर रेखाएँ, अर्थात लिनिया नाइग्रा
निषेचनोपरांत विलोपित मेरे पौरुष के ही अवशेष हैं
जबकि प्रसव वेदना गर्भवती साथी की पीड़ा का उत्स
नहीं सिल सकते मेरी साथी की प्रसव-वेदना
उसकी भग्नासा पर टँके टाँके
स्त्री की योनि का फटना, चरचराकर
जीवन की अपरिहार्यता की विडंबना है
आज खारिज़ करता हूँ मैं
सृजन का साझीदार होने के तमाम पुरुषैये दावे
क्योंकि जच्चे-बच्चे की सलामती मनाता
प्रसवकक्ष की देहरी पे खड़ा मैं
सिर्फ मैं जानता हूँ
ये दुनिया एक प्रसवरत स्त्री की चीख़ है। ​​