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गर्म-ए-सफ़र / ”काज़िम” जरवली

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अभी और गर्म-ए-सफ़र रहो, वहीँ फ़िक्रे तशना लबां रुके,
जहा ज़िन्दगी का क़याम हो, जहा रख्ते अब्रे रवां रुके ।

कहाँ कितनी शाखें उजड़ गयीं, कहाँ कितने गुल हुए बे सदा,
मै शजर शजर का हिसाब लूँ , ज़रा ज़ोरे क़ेहरे खिज़ां रुके ।

गले तेग़े-ए-तुन्द से जोड़ दो, रगे अपनी अपनी निचोड़ दो,
जो चली है दामने दश्त से, न वो ज़ूवे खूने रवां रुके ।

कभी लम्हा भर तेरे सामने, ऐ सूकुते “काज़िमे” बे नवा,
ना सफ़ीरे अहले ज़बां रुके, न ख़तीबे शोला बयां रुके ।। --”काज़िम” जरवली