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गर उसकी ज़ुल्फ़ परीशां नहीं तो कुछ भी नहीं / कांतिमोहन 'सोज़'
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गर उसकी ज़ुल्फ़ परीशां नहीं तो कुछ भी नहीं I
हमारी मौत का सामां नहीं तो कुछ भी नहीं II
सतूने-दार पे काफ़ी नहीं सरों के चराग़,
ब-आबो-ताब चराग़ां नहीं तो कुछ भी नहीं I
ये ज़िन्दगी की अलामत है इसकी फ़िक्र न कर,
तेरा ज़मीर परेशां नहीं तो कुछ भी नहीं I
अदाए-ख़ास है उसकी तू जी न कर छोटा,
वो बादे-मर्ग गुलअफ़्शां नहीं तो कुछ भी नहीं I
सुख़नवरी का वो दावा ज़रा नहीं करता,
अगर्चे सोज़ ग़ज़लख़्वां नहीं तो कुछ भी नहीं II