भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

गर छाप दे--ग़ज़ल / मनोज श्रीवास्तव

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

'गर छाप दे--ग़ज़ल
 
'गर छाप दे तूं इस कहर को आज के अखबार में,
कासाए-दिल होगा नज़र दो अश्क़ के इज़हार में.
 
स्मारकों में जो कैद हैं ये रूहे-बुत आदर्श के
वो लाएंगे कैसे हमें इंसान के किरदार में.
 
इन व्यस्त चौराहों पर हैं लोग जो ठिठके हुए
क्या कोई भी मंजिल नहीं इस पार या उस पार में.
 
तुम आज मिटने की ज़गह पर कर रहे शुरुआत क्यों
अब कुफ्र करना छोड़ दो हर दश्त के अम्बार में.
 
पिंजरे में कैद शेर से तूं आज क्यों डरने लगा
वो आदमी गांधी नहीं जो चींखता आजार में.
 
(रचना-तिथि: ०२-०९-१९९५)