भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
गलत वक्त / प्रिया जौहरी
Kavita Kosh से
कुछ बातें कही नहीं जाती
या यूं कहूँ कि कह नहीं पाते हैं लोग
ठीक वैसे ही जैसे कुछ लोग
मिल नहीं पाते
या लोग मिल जाते है ग़लत वक़्त पर
ये ग़लत वक़्त का मिलना
अजीब-सा ही लगता है
ऐसे में मिलने से ज्यादा
अच्छा बिछड़ना लगता है
वही मिलना जो
कभी ख़ुशी देता है
वही मिलना दुःख से सराबोर कर देता है
और अंत में सिर्फ़ नियति बच जाती है
जिसको स्वीकार कर लेते हैं
या यूं
कहूँ स्वीकार करना ही पड़ता है ।