गलबात : महानगर कलकत्ता से / मुकेश प्रत्यूष
(हावड़ा स्टेशन पर)
भिन्न - भिन्न दिशाओं से आती ये पटरियां
तुमसे होकर
अनन्त तक भी तो जा सकती थीं - महानगर
फिर इनकी यात्रा यहीं खत्म क्यों हो गयी
क्या तुमसे आगे कहीं कुछ नहीं है
या कि
तुम
कुछ और जानने देना नहीं चाहते ?
(2)
तुम सबसे निबाह लेते हो न महानगर !
रिक्सावाला 'मेड़ुआ` हो
ट्राम में धंसा बाबू
या टैक्सी बैठा सेठ-साहब
बड़े मिलनसार हो
लेकिन
एक बात बताओगे महानगर
तुम्हारे पालक दामन में आये हर आदमी को
तीसरे दिन से ही
अपने 'घर` की याद क्यों सताने लगती है?
(3)
तुम्हारे साथ दिन का पता नहीं चलता महानगर
और, तुम्हारी रातें
- होतीं हैं बड़ी खूबसूरत
ऐसे में
कोई अगर तुम्हारा हो के रह जाना चाहे
तो यह
उसका अपराध तो नहीं होगा न महानग
(4)
जानते हो महानगर
- क्या कहते हैं लोग तुम्हारे बारे में
तुम्हारी जिन्दगी बड़ी गलीज है - कुलटा की नाईं
लेकिन -
यह नहीं समझ पाया महानगर
तुम्हे तमाम लानत-सलामत भेजते हुए
अपने-अपने 'घर` वापस जाने वाले लोग
क्यों होते हैं बार-बार मजबूर
लौटकर
तुम्ही तक आने को ?
(5)
(गंगा तट पर)
तुम्हारे पहलू में लोटते
सागर से मिलने
अपने उद्गम से किस तरह
तड़पती भागती है गंगा
क्या तुमने कभी देखा है महानगर
नहीं-न
मैंने देखा है; इसीलिए पूछता हूं
भर रास्ते जीवन-संगीत टेरनी वाली यह अलमस्त-सी सरिता
यहां इस कदर खामोश, टूटी-टूटी सी क्यों है?
चूक गयी हैं संवेदनाएं
मर गयी हैं इच्छाएं
या कि अनुभव बटोरते-बटोरते
प्रौढ़ा हो गयी है गंगा.
(6)
जा रहा हूं महानगर
विदा लेकर नहीं; तुमसे भागकर
क्या करता
तुम्हारे साथ दौड़ते-दौड़ते थक गया हूं मैं
एक बात पूछूं, बताओगे
- क्या तुम भी कभी थकते हो महानगर
अपनी ही रफ्तार से ?
(7)
माफ करना महानगर
आते ही एक बेतुका-सा प्रश्न पूछ बैठा था तुमसे
अच्छा करते हो महानगर
आते ही दे देते हो वापसी का संकेत
जब किसी का होना नहीं
तो
भ्रमजाल
फैलाने से क्या फायदा ....