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गलियाँ / राजेंद्र तिवारी 'सूरज'
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मै अपने गाँव की गलियों में बचपन ढूँढ लेता हूँ,
मै अपने घर के दरवाज़ों में दर्पण ढूँढ लेता हूँ |
मेरे लहज़ों में अल्फाज़ों में मेरा गाँव बसता है,
मै गौरेयों की पंगत में वो सावन ढूँढ लेता हूँ |
मेरा दम घुटने लगता है शहर की बेवफ़ाई में,
मै घर की नीम की साये में मधुबन ढूँढ लेता हूँ |
मेरी अम्मा अभी भी घर के आँगन में महकती हैं,
मै उनकी लोरियों में अपनी धड़कन ढूँढ लेता हूँ |
मेरी दादी का सुरमा मेरी आँखों में बसा है यूँ
दुवायें याद करके अपना मरहम ढूँढ लेता हूँ |
मै अपने गाँव की गलियों में बचपन ढूँढ लेता हूँ,
मै अपने घर के दरवाज़ों में दर्पण ढूँढ लेता हूँ |