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गलियों गलियों भटकी चीख़ें / अमित शर्मा 'मीत'
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गलियों गलियों भटकी चीख़ें
अपना दुखड़ा रोती चीख़ें
दिल दहलाने वाली हैं ये
इतनी ख़ामोशी की चीख़ें
कैसा मंज़र देख रहा हूँ
कुछ लाशें हैं बाक़ी चीख़ें
अपने आप ही रो दीं आँखें
कानों पर जब लादी चीख़ें
जब जब भूख ने रंग दिखाया
आवाज़ों में घोली चीख़ें
कितनी हिम्मत कर बैठी हैं
दीवारों से उलझी चीख़ें
हमने भी ये तोड़ निकाला
ख़ामोशी से काटी चीख़ें