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गलियों में / हरीश भादानी
Kavita Kosh से
गलियों में
भटकते दुख
आ ही गए हैं सड़क पर
देखली है
एक लम्बी सीध
बीच से
लांघा है चौराहा कि
कहने न लग जाए
छूटे गुबार
डूबी हुई आवाज़ की कहानी
वे तो
आसमानों पर टिकाए आंख
नापने को हैं
इतना बड़ा विस्तार
सूंधें हैं हवाएं
लम्बे कर दिए हैं हाथ
कुहासे पोंछ देने
झरोखों के शहर
पहुंचना ही है उन्हें
दिसम्बर’ 81