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गले पड़ी दुविधायें हैं / रविशंकर पाण्डेय
Kavita Kosh से
गले पड़ी दुविधायें हैं
अफवाहों की
धुंध घनी है
डूबी सभी दिशायें हैं,
धुआँ- धुआँ से
इस मौसम की
शातिर बहुत हवायें हैं!
स्याह सफेद
न समझ रहा है
क्या झूठा क्या सच्चा है,
ऊपर से दिखता-
सपाट जो
वही दे रहा गच्चा है य
कौन दाहिने बाँयें है!
चोला बदल रही
बदल रही दुनिया की पहचानें हैं,
गड्डमगड्ड
हो रहे चेहरे
सब जाने अनजाने हैंय
बदले-बदले
सर्वनाम सब
बदल गयीं संज्ञायें हैं!
नीम अँधेरे के
चंगुल में
कब से फँसा सबेरा है,
जिधर कहीं भी
नजर घुमाओ
दीपक तले अँधेरा हैय
आये थे-
संकल्प बोलने
गले पड़ी दुविधायें हैं!