भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
गळगचिया (34) / कन्हैया लाल सेठिया
Kavita Kosh से
बिरखा आई। छोटा छोटा नाळा'र खाळा पाणी ल्या ल्या'र तळाब नै भर दियो। दूसरै ही दिन करड़ो तावड़ो निकल्यो,
नाळाँ-खाळाँ रा कंठ सूखग्या। नाळा कयो-तळाब म्हे काल पाणी ल्याया जकै में स्यूं थोड़ो पाणी कंठ आला करणै वासतै म्हाँने पाछो दै।
तळाब चिड़ र बोल्यो-जा जा, छोटै मूंड़ै बडी बात नही करणी। बापड़ा नाळा तिसाँ मरता धूळ फांकणी सरू कर दी । फेर बिरखा आई, पण नाळाँ रा तो कंठ रूजग्या हा बी सूखणै पड्योड़े तळाब ताँई पाणी कुण ल्यातो हो ?