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गळगचिया (43) / कन्हैया लाल सेठिया

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झूंपड़ी रो आडो खोल्यो'र बारै ऊभी च्यानणी बिन्याँ पूछ्याँ ही चटकैण माँय बड़गी। माचै परां सूती आँगणैं में पसरी र कपड़ा ही कोनी खोलण दिया'क रूँ रूँ लटूमगी। मैं कयो च्यानणी! रात री बेल्याँ में सूनै घर में परायै मोट्यार कनैं नहीे रहणूं जा चली जा चाँद काँई समझसी ? पण च्यानणी टस स्यूं मस को हुई नीं । अचाणचुको एक बादळियो आयो र चाँद रो मूंडो ढकीजग्यों सागै ही च्यानणी सपकै'र जाँती रही। बादळियो पाँवडो आगै भरयों'र चाँद निकलग्यो च्यानणी पाछी आ गी। मैं पूछ्यों च्यानणी कुनैं गई ही ? च्यानणी बोली भोळिया, मैं तो चाँद रै सागै ही रहूँ हूँ। अबै ही कोनी समझयो के ? मैं तो मिनखाँ रो सत टंटोळती फिरूँ हूँ।