भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
गहरा अपना प्यार / प्रेमलता त्रिपाठी
Kavita Kosh से
अंतस निर्मल झील सा, गहरा अपना प्यार।
मोती माणिक अंक में, प्रेम भरा उदगार।
देख लहर तरंग सखे, नौका शोभित पाल,
उठती गिरती जो कहे, सुख दुख जीवन सार।
भावों का संगम हृदय, धारा निर्मल साथ
गरल भाव को मेट दो, मीत न होती हार।
तरल तरंग लुभावनी, गिरिवर करे सनाथ,
तरिणी तट से जा लगी, नाविक करे गुहार।
हरी भरी यह शृंखला, सुंदरता की खान,
प्रेम बुलातीं वादियाँ, नाज करें श्रंृगार।