ग़ज़लों का जाम! मेरे इश्क के नाम
छूने न दूँगी मैं जलता हुआ जाम
वो छुप गया है, हुआ लापता है
किसको कहाँ पर मैं भेजूं पैग़ाम
अश्कों की मय यह उबलती हुई
पीती अकेली हूँ मैं सुबहो-शाम
तिलतिल जलाती है विरह की अग्नि
पल भर को भी न मिलता आराम
रिसने लगा है दिल का नासूर
डसने लगी है पीड़ा ओ राम
खत यह उसको मिलेगा ज़रूर
चाहे लिखा है पता अनाम
ख्वाबों में आयेगा पीने को मय
उर्मिल मिलन का है वही मुकाम।