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ग़ज़लों पे कर न पाएँगे थोड़ा भी गौर क्या / पुरुषोत्तम 'यक़ीन'
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ग़ज़लों पे कर न पाएँगे थोड़ा भी ग़ौर क्या
बिल्कुल ही हम को आप ने समझा है ढोर क्या
जो जी में आए सोच लो तुम मेरे वास्ते
आख़िर किसी के सोच पे रक्खूँ मैं ज़ोर क्या
कर डाला क़त्ल बाप को भाई से लट्ठमार
बीवी जला के मार दी, आया है दौर क्या
फेंको-उछालो शौक से या मारो ठोकरें
टूटा हुआ ये दिल भला टूटेगा और क्या
ताला ज़ुबाँ पे कोई बज़ाहिर नहीं 'यक़ीन'
लेकिन खिलाफ़ ज़ुल्म के उठता है शोर क्या