ग़ज़ल-1-3 / विनीत मोहन औदिच्य
1
बढ़ते ही जा रहे हैं आजार जिंदगी के
लगते नहीं है अच्छे आसार जिंदगी के
इक शोख सी ग़ज़ल का उन्वान खो गया ज्यों
फीके से हो चले हैं अशआर जिंदगी के
मुश्किल सवाल सारे कंधो पे लादकर मैं
नखरे उठा रहा हूँ दुश्वार जिंदगी के
गुरबत से तंग आकर रूठी हुईं हैं खुशियाँ
खोने लगे हैं मानी त्यौहार जिंदगी के
उधड़े हुए हैं रिश्ते कितना रफू करूँ मैं
चुभते हैं 'फिक्र' अब तो गमख्वार जिंदगी के।।
2
नुमाइश में जहां लाया गया हूँ
बरंगे ऊद बिखराया गया हूँ
मेरी रुसवाई का आलम न पूछो
सरे बाजार बिकवाया गया हूँ
रहा ढोता मैं जिंदा लाश अपनी
मैं बाजीचों से बहलाया गया हूँ
सदाकत का सिला पाया है ऐसा
कि सौ सौ बार झुठलाया गया हूँ
बना है 'फ़िक्र' अपना वो तमाशा
कि सू ए दार पे लाया गया हूँ
विनीत मोहन _फ़िक्र सागरी
3
मुहब्बत में ये मोजिजा हो गया
भरा जख्म फिर से हरा हो गया
हुए सब्र के इम्तिहां इस कदर
जुनूं इश्क का सब हवा हो गया
मुक़द्दर ने चालें ही ऐसी चलीं
हवादिस का इक सिलसिला हो गया
चला यूँ वो तीरे नजर नीमकश
पिये बिन गजब का नशा हो गया
सुलगता रहा 'फ़िक्र' भी उम्र भर
बड़ा दर्द का काफ़िला हो गया
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