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ग़ज़ल-3 / नज़ीर अकबराबादी
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दिखाई जब तेरे मुखड़े ने आ झलक पै झलक ।
लगी न फिर मेरी उस रोज़ से पलक पै पलक ।
क़दम-क़दम पै मेरा जी पड़ा निकलता है,
गजब है यह तेरे रुख़सार<ref>गाल</ref> की थलक पै थलक ।
गया जो नाला<ref>रोना-धोना, दीर्घश्वास</ref> मेरा आज आसमाँ के क़रीब,
तो उसके ख़ौफ़<ref>डर, भय</ref> से थर्रा गए फलक<ref>आकाश</ref> पै फलक ।
पियाला उससे ज़्यादा तू भर के दे साक़ी,
कि तुझको आती है ख़ुश जाम की झलक पै झलक ।
’नज़ीर’ कह कि तू अब किसके ग़म में बैठा है,
कि आँसुओं की चली आती है ढलक पै ढलक ।।
शब्दार्थ
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