ग़ज़ल में जो लालो-गोहर चाहिये / प्रफुल्ल कुमार परवेज़
ग़ज़ल में जो लालो-गोहर चाहिये
समुन्दर का गहरा सफ़र चाहिये
वो हिन्दी कहाँ और वो उर्दू कहाँ
ग़ज़ल को तोअपना असर चाहिये
ग़ज़ल को ग़रीबों में ख़ुशहलियाँ
अमीरों में थोड़ा-सा डर चाहिये
शहर की सड़क या गली गाँव की
ग़ज़ल को तो अपनी डगर चाहिये
चमन में बहारों की अठखेलियाँ
ग़ज़ल को परिन्दों में पर चाहिये
दरीचा-ओ-दर हों हवा के लिए
ग़ज़ल को फ़क़त ऐसा घर चाहिये
हवा गुनगुनाए हर इक बाम पर
ग़ज़ल को ये शाम-ओ-सहर चाहिये
ग़ज़ल की दुआ में है सब की ख़ुशी
ग़ज़ल को यही दर-ब-दर चाहिये
ग़ज़ल को है सूरज की दरकार भी
उसे चाँदनी भी मगर चाहिये
मुहब्बत सभी में बसेरा करे
ग़ज़ल को फ़क़त वो दहर चाहिये
ग़ज़ल से जो कोई सियासत करे
तो उसपे ग़ज़ल को क़हर चाहिये
कहीं भी करे कोई ज़ुल्मो-सितम
ग़ज़ल को उन्हीं की ख़बर चाहिये
ग़ज़ल के सफ़र पे हो ‘परवेज़’ तुम
ग़ज़ल को कोई राहबर चाहिये