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ग़ज़ल है ग़ज़ल वह न हिन्दू मुसलमां / सूर्यपाल सिंह
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ग़ज़ल है ग़ज़ल वह न हिन्दू मुसलमां।
बयाँ वह करे सच न हिन्दू मुसलमां।
तुम्हें बाँटने का यहाँ षौक भारी,
ग़ज़ल तो बँटे अब न हिन्दू मुसलमां।
नहीं मर्म की ख़ास पहचान जिनको,
वही कह रहे सब न हिन्दू मुसलमां।
ज़मीनें स्वयं एक रचना बनातीं,
मगर जब उठे, वह न हिन्दूू मुसलमां।
घरों को स्वयं आप रह-रह बँटाते,
बँटा आदमी अब न हिन्दू मुसलमां।