भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

ग़मों का बोझ यूँ तन्हा / राजश्री गौड़

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

ग़मों का बोझ यूँ तन्हा न अपने सर उठाओ तुम,
शरीके-ग़म हमें कर लो और मुस्कराओ तुम।

चुभा करती हैं जो बातें पुरानी ख़ार के जैसे,
उन्हें अब दफ़्न करदो दर्द अपना न बढाओ तुम।

कई अपनों को बख़्शे हैं तुम्हीं ने ख़्वाब के मोती,
मगर अब ढल रहे सूरज को ज्यादा मत थकाओ तुम।

मिले हैं जख़्म जितने भी दवा उनकी करेंगे हम,
मगर इस जिंदगी को और न दोज़ख़ बनाओ तुम।

तुम्हारे साथ फूलों का सफर जब तय किया हमने,
चुना पलकों से हर काँटा, उसे तो मत भुलाओ तुम।