भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
ग़म का ख़ज़ाना तेरा भी है मेरा भी / शाहिद कबीर
Kavita Kosh से
ग़म का ख़ज़ाना तेरा भी है मेरा भी
ये नज़राना तेरा भी है मेरा भी
अपने ग़म को गीत बना कर गा लेना
राग पुराना तेरा भी है मेरा भी
कौन है अपना कौन पराया क्या सोचें
छोड़ ज़माना तेरा भी है मेरा भी
शहर में गलियों गलियों जिस का चर्चा है
वो अफ़्साना तेरा भी है मेरा भी
तू मुझ को और मैं तुझ को समझाऊँ क्या
दिल दीवाना तेरा भी है मेरा भी
मय-ख़ाना की बात न कर वाइज़ मुझ से
आना जाना तेरा भी है मेरा भी
जैसा भी है ‘शाहिद’ को अब क्या कहिए
यार पुराना तेरा भी है मेरा भी