भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
ग़म का वो ज़ोर अब मेरे और नहीं रहा / मुनीर नियाज़ी
Kavita Kosh से
ग़म का वो ज़ोर अब मेरे अँदर नहीं रहा
इस उम्र में मैं इतना समर्वर नहीं रहा
इस घर में जो कशिश थी गई उन दिनों के साथ
इस घर का साया अब मेरे सर पर नहीं रहा
वो हुस्न-ए-नौबहार अबद शौक़ जिस्म सुन
रहना था उस को साथ मेरे पर नहीं रहा
मुझ में ही कुछ कमी थी कि बेहतर मैं उन से था
मैं शहर में किसी के बराबर नहीं रहा
रहबर को उन के हाल की हो किस तरह ख़बर
लोगों के दरमियां वो आकर नहीं रहा
वापस न जा वहाँ कि तेरे शहर में 'मुनिर'
जो जिस जगह पे था वो वहाँ पर नहीं रहा