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ग़म का वो ज़ोर अब मेरे और नहीं रहा / मुनीर नियाज़ी

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ग़म का वो ज़ोर अब मेरे अँदर नहीं रहा
इस उम्र में मैं इतना समर्वर नहीं रहा

इस घर में जो कशिश थी गई उन दिनों के साथ
इस घर का साया अब मेरे सर पर नहीं रहा

वो हुस्न-ए-नौबहार अबद शौक़ जिस्म सुन
रहना था उस को साथ मेरे पर नहीं रहा

मुझ में ही कुछ कमी थी कि बेहतर मैं उन से था
मैं शहर में किसी के बराबर नहीं रहा

रहबर को उन के हाल की हो किस तरह ख़बर
लोगों के दरमियां वो आकर नहीं रहा

वापस न जा वहाँ कि तेरे शहर में 'मुनिर'
जो जिस जगह पे था वो वहाँ पर नहीं रहा