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ग़म का सूरज कभी ढलता ही नहीं / 'शकील' ग्वालिअरी

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ग़म का सूरज कभी ढलता ही नहीं
आसमाँ रंग बदलता ही नहीं

दे दिया जाता है क़ब्ज़ा दिल पर
दिल तो सीने से निकलता ही नहीं

कहते हैं ऊँची उड़ानों वाले
जो गिरा फिर वो सँभलता ही नहीं

है ख़ुशामद ही से आमद लेकिन
वो ख़ुशामद से पिघलता ही नहीं

गाँव भर ख़ौफ़-ज़दा है उस से
जो कभी घर से निकलता ही नहीं

किसी इंसान का दिल हो कि चराग़
बे जलाए कभी जलता ही नहीं

ख़ामुशी है तो बड़ी चीज़ मगर
काम चुप रहने से चलता ही नहीं

शाइरीकर के भी देखा है ‘शकील’
दिल में कुछ है जो निकलता ही नहीं