भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
ग़म के अहसास से बेकार न रोते रहना / ईश्वरदत्त अंजुम
Kavita Kosh से
ग़म के अहसास से बेकार न रोते रहना
दिले-मगमूम में खंज़र न चुभोते रहना
हार खुशियों के मसर्रत के पिरोते रहना
बोझ ही ग़म का दिले जार न ढोते रहना
याद कितनी भी पुरानी हो कसक रहती है
याद को सागरो-मीना में डुबोते रहना
दिल की बस्ती है ये ठहरा यही इसका मामूल
इक न हश्र का बरपा यहां होते रहना
दागे-इस्या का रहे नक़्श न दिल पर कोई
दाग को अश्के-नदामत से ही धोते रहना
हश्र के रोज़ तो कुश्तों को मिलेगा इंसाफ़
हश्र के रोज़ न ऐ दिल कहीं सोते रहना
कौन खुश होगा तुम्हें देख के शादो-फरहा
अपने हालात पे 'अंजुम' कभी रोते रहना।