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ग़म के अहसास से बेकार न रोते रहना / ईश्वरदत्त अंजुम

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ग़म के अहसास से बेकार न रोते रहना
दिले-मगमूम में खंज़र न चुभोते रहना

हार खुशियों के मसर्रत के पिरोते रहना
बोझ ही ग़म का दिले जार न ढोते रहना

याद कितनी भी पुरानी हो कसक रहती है
याद को सागरो-मीना में डुबोते रहना

दिल की बस्ती है ये ठहरा यही इसका मामूल
इक न हश्र का बरपा यहां होते रहना

दागे-इस्या का रहे नक़्श न दिल पर कोई
दाग को अश्के-नदामत से ही धोते रहना

हश्र के रोज़ तो कुश्तों को मिलेगा इंसाफ़
हश्र के रोज़ न ऐ दिल कहीं सोते रहना

कौन खुश होगा तुम्हें देख के शादो-फरहा
अपने हालात पे 'अंजुम' कभी रोते रहना।