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ग़म के पैकर में ढल न जाए कहीं / विवेक बिजनौरी

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ग़म के पैकर में ढल न जाए कहीं,
ये ख़ुशी चाल चल न जाए कहीं..

मुझे ये डर है शक की परछाई,
अपना रिश्ता निगल न जाए कहीं

उसको आदत तो पड़ गयी है मेरी,
पर ये आदत बदल न जाए कहीं

उसको छूने में एहतियात बरत,
आग से हाथ जल न जाए कहीं

तू दिलासे तो दे रहा है मुझे,
वाक़ई दिल बहल न जाए कहीं

ज़िन्दगी जैसे नाव कागज़ की,
तेज़ बारिश में गल न जाए कहीं

आज हम एक होने वाले हैं,
ये मुलाक़ात टल न जाए कहीं

उसकी हर बात मान लेता हूँ,
उसको ये बात खल न जाए कहीं

इश्क़ दरिया नहीं है काई है,
बावला दिल फिसल न जाए कहीं

उसके अश्कों की आँच से मेरा,
मोम सा दिल पिघल न जाए कहीं

उसकी फ़ितरत में है दग़ा देना,
वो छलावा है छल न जाए कहीं