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ग़म के सांचे में ढली हो जैसे / सुरेश चन्द्र शौक़

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ग़म के सांचे में ढली हो जैसे

ज़ीस्त काँटों में पली हो जैसे


दर—ब—दर ढूँढता फिरता हूँ तुझे

हर गली तेरी गली हो जैसे


हम:तन गोश है सारी महफ़िल

आपकी बात चली हो जैसे

यूँ तेरी याद है दिल में रौशन

इक अमर जोत जली हो जैसे


तेरी सूरत से झलकता है ख़ुलूस

तेरी सीरत भी भली हो जैसे


आह ! यह तुझसे बिछड़ने की घड़ी

नब्ज़—दिल डूब चली हो जैसे


‘शौक़’! महरूमी—ए—दिल क्या कहिये

हर ख़ुशी हम से टली हो जैसे.-


ज़ीस्त=ज़िंदगी; हम:तन गोश होना =सुनने के लिए कान बन जाना; ख़ुलूस=निष्कपटता:

सीरत=स्वभाव; महरूमी-ए-दिल= दिल का वंचित हो जाना