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ग़म खाने में बोदा दिले-नाकाम बहुत है / ग़ालिब

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ग़म खाने में बोदा<ref>कमज़ोर</ref> दिले-नाकाम बहुत है
यह रंज कि कम है मए-गुलफ़ाम बहुत है

कहते हुए साक़ी से हया आती है वरना
है यूं कि मुझे दुरद-ए-तह-ए-जाम<ref>प्याले की तह में बची हुई तलछट</ref> बहुत है

न तीर कमां में है, न सैयाद कमीं<ref>घात</ref> में
गोशे<ref>कोना</ref> में क़फ़स<ref>पिंजरा</ref> के मुझे आराम बहुत है

क्या ज़ुहद<ref>धर्म</ref> को मानूं कि न हो गरचे रियाई
पादाश-ए-अ़मल<ref>कर्म का फल</ref> की तमअ़-ए-ख़ाम<ref>अध-पका लालच</ref> बहुत है

हैं अहल-ए-ख़िरद<ref>बुद्धिमान</ref> कि किस रविश-ए-ख़ास<ref>विशेष आचरण</ref> पे नाज़ां
पा-बस्तगी-ए-रस्म-ओ-रह-ए `आम<ref>साधारण रीति-रिवाज़ का पाबंदी</ref> बहुत है

ज़मज़म ही पे छोड़ो, मुझे क्या तौफ़-ए-हरम<ref>काबे की परिक्रमा</ref> से
आलूदा-ब-मै जामा-ए-अहराम<ref>शराब से भीगा हुआ हज़ का पवित्र वस्त्र</ref> बहुत है

है क़हर गर अब भी न बने बात कि उन को
इनकार नहीं, और मुझे इब्राम<ref>ज़ल्दी</ref> बहुत है

ख़ूं हो के जिगर आंख से टपका नहीं, ऐ मरग<ref>मौत</ref>
रहने दे मुझे यां, कि अभी काम बहुत है

होगा कोई ऐसा भी कि 'ग़ालिब' को न जाने
शायर तो वह अच्छा है पर बदनाम बहुत है

शब्दार्थ
<references/>