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ग़म में भी सूरत खिली है, और क्या / गिरधारी सिंह गहलोत

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ग़म में भी सूरत खिली है, और क्या।
ये मेरी ज़िंदादिली है, और क्या।

मौत की सोचो जरा सी चोट से
ख़ुदकशी तो बुज़दिली है, और क्या।

मसअले हल मुल्क के होते नहीं
ये सरासर ग़ाफ़िली है,और क्या।

नाम तेरा बेवफ़ा कोई न ले
ये जुबां अब तक सिली है, और क्या।

क़त्लो गारत देख कर इंसान की
रूह तक मेरी छिली है, और क्या।

ज़ुर्म है गुलशन से तोड़ो गर कली
जो अभी तक अधखिली है, और क्या।

काम अपना छोड़ते कल पर अगर
ये तो बिलकुल काहिली है, और क्या।

वस्ल का पैग़ाम भेजा ख़ुद मुझे
ये तेरी दरियादिली है, और क्या।

काटनी हर हाल में है अब 'तुरंत'
ज़िंदगी जैसी मिली है, और क्या।