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ग़म सदा के लिए हमसफ़र हो गया / महावीर प्रसाद ‘मधुप’

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ग़म सदा के लिए हमसफ़र हो गया
दिल रहा दिल न, पीड़ा का घर हो गया

बदनसीबी का आलम न कुछ पूछिए
हर किनारा बदल कर भँवर हो गया

बेरहम देवता का पसीजा न दिल
हर क़लामे-दुआ बेअसर हो गया

हो गई जिस पे उसकी निगाहे-करम
जे़र से वो जहाँ में जबर हो गया

आदमी को निगलने लगा आदमी
इस क़दर आदमी जानवर हो गया

मौत सस्ती है महंगी हुई ज़िन्दगी
आम चर्चा यही दर-बदर हो गया

बात इतनी सी थी मुँह पे सच कह दिया
दोस्त, दुश्मन इसी बात पर हो गया

हम बहारों का मुँह ताकते रह गए
सारा गुलशन उन्हीं की नज़र हो गया

गै़र कोई न था, सब थे अपने जहाँ
अजनबी सा वही कुल शहर हो गया

ढल गया दर्द जो भी ग़ज़ल में ‘मधुप’
दिल की दुनिया में बस कर अमर हो गया