भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
ग़रीबी जाति की / बाल गंगाधर 'बागी'
Kavita Kosh से
क्यों साहस को सियासत1 मार देती है
ग़रीबी जाति की कपड़े उतार लेती है
अकसर लोग रहते हैं भूखा व नंगा
जब इंसानियत को जाति बांट देती है
कितनी सभाओं में बेइज्जती सहता हूँ
बेबसी चेहरे की रौनक बिगाड़ देती है
बुलंद सीना मेरा खाई जैसे धंसता है
जातिय कुर्सी जब, कुर्सी से गिरा देती है
हमारे मुंह से निवाले, उस वक्त गिर जाते हैं
जब मेरे जीने की, रोटी नीलाम होती है
हमें नीच बनके, हर वक्त रहना पड़ता है
क्योंकि लाठियां सवर्णों की, पगड़ी उतार लेती हैं
हालात बदलने से, पानी का रंग बदला गया
पर जातिय गंदगी हमें, नाले में डाल देती है
‘बाग़ी’ ज़हर पीता तो, एक बार मरता
मगर नीचता की पीड़ा, हर रोज मार देती है