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ग़र तुझे ख़्वाब के मानिन्द न पाया होता / रंजना वर्मा
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ग़र तुझे ख़्वाब के मानिन्द न पाया होता
ये मुहब्बत का नशा दिल पर न छाया होता
ये परिन्दे नहीं परवाज़ यूँ किया करते
आसमाँ ने न अगर इनको लुभाया होता
ग़र बहारें न यूँ बेचैनियाँ दिखा जाती
कोई दिल के कभी नज़दीक न आया होता
तू जो आ जाता मेरा ग़मगुसार बन के कभी
ग़म के इस बोझ ने इतना न दबाया होता
जख़्म को छू के जो राहत-सी मिला करती थी
उस के एहसास ने मुझ को न रुलाया होता
तेरे दामन से जो आती न वफ़ा की खुशबू
तो जमाना ये कभी मुझ को न भाया होता
तू मेरे साथ ही रहता जो किसी ने यूँ ही
तोड़ तन पींजरा पंछी न उड़ाया होता