भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

ग़र तुझे ख़्वाब के मानिन्द न पाया होता / रंजना वर्मा

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

ग़र तुझे ख़्वाब के मानिन्द न पाया होता
ये मुहब्बत का नशा दिल पर न छाया होता

ये परिन्दे नहीं परवाज़ यूँ किया करते
आसमाँ ने न अगर इनको लुभाया होता

ग़र बहारें न यूँ बेचैनियाँ दिखा जाती
कोई दिल के कभी नज़दीक न आया होता

तू जो आ जाता मेरा ग़मगुसार बन के कभी
ग़म के इस बोझ ने इतना न दबाया होता

जख़्म को छू के जो राहत-सी मिला करती थी
उस के एहसास ने मुझ को न रुलाया होता

तेरे दामन से जो आती न वफ़ा की खुशबू
तो जमाना ये कभी मुझ को न भाया होता

तू मेरे साथ ही रहता जो किसी ने यूँ ही
तोड़ तन पींजरा पंछी न उड़ाया होता