भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

ग़लत ये बात है कितनी, ये अक्सर भूल जाते हैं / सूरज राय 'सूरज'

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

ग़लत ये बात है कितनी, ये अक्सर भूल जाते हैं।
जिसे हम प्यार करते हैं गुनह उसके छुपाते हैं॥

अंधेरों! क्यों हमें बाज़ार की रस्में बताते हो
उजालों की सही लेकिन दुकां हम भी लगाते हैं॥

हमारे घाव को धोता है वह अश्कों से ही अक्सर
हरे रहकर नमक का मोल भी घाव चुकाते हैं॥

उठा जाता नहीं हमसे पकड़ के हाथ दूजे का
न जाने लोग किस तरह कोई एहसां उठाते हैं॥

कई यादें लिये कड़वाहटें फिर आ गयीं ऐ दिल
चलो झाड़ू उठाके मकड़ी के जाले हटाते हैं॥

हंसी को भी हंसी आती है उनकी बेवक़ूफ़ी पे
जो हंसने के लिये जबरन ख़ुद ही को गुदगुदाते हैं॥

हसीं तक़लीफ़ देती है यही कुछ अनकही बातें
किसी का नाम लेकर हम कभी जो मुस्कुराते हैं॥

अमावस ही अमावस है यहाँ लोगों के ज़हनों में
अगरचे हर जगह तस्वीर "सूरज" की लगाते हैं।