ग़ाफ़िल-शिआर / रेशमा हिंगोरानी
एक बेजान सा चेहरा लिए जो आया है,
मेरी हस्ती को मुकम्मल वो कर नहीं सकता !
मैंने हर लमहा,
हर इक शै में,
तलाशा था जिसे,
धूआँ सा बन के हवाओं में खो नहीं सकता !
ये बेहिसाब जो है दश्त मुझको घेरे हुए,
मेरी तन्हाई से गहरा तो हो नहीं सकता !
जो अक्स मेरा हमनशीं हुआ करता था कभी,
एक धुँधलाती सी परछाईं बन नहीं सकता !
बस कि रोया है,
बेआवाज़,
जब भी रोया है...
बस कि दामन को,
महज़,
अपने ही
भिगोया है,
ये बेरहम ज़माना,
दिल का दर्द क्या जाने,
वफ़ा की राह पर
क्या-क्या न उसने खोया है !
वो तआसुर से हो रहे हैं बदगुमान मेरे,
गम-ए-हस्ती का मेरे
जिनको कोई इल्म नहीं,
जो समझते हैं मुस्कुराने को अदा कोई...
जिन्हें मालूम नहीं ज़िंदादिली की कीमत,
चुकाई कितने बेशुमार अश्क-ओ-आहों से...
लोग पेहचान न पाए तो कोई सोग नहीं,
कोई नाम-ओ-निशाँ, न ही सुराग छोडा था,
मगर था जिसको अपना हमसफ़र करार किया,
वो ही गा़फ़िल मेरी हालत से हो नहीं सकता,
हाए,
गा़फ़िल मेरी हालत से हो नहीं सकता !
25.12.93