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ग़ायब होती एक तस्वीर / विपिन चौधरी
Kavita Kosh से
जब कभी
मुलाक़ात का एक सिरा थाम कर
तुम्हारी ओर आने की भरपूर कोशिश की
तब भ्रम का जाल इतनी दूर तक
फैला हुआ मिला
उसमें तुम्हारी तस्वीर
धुँधली और धुँधली
होती चली गई
अंत में हुआ यह की
तुम तस्वीर से ग़ायब हो गए।
फिर जब भी पाँव हरकत में आए
तो तुम्हारी तरफ़ की सभी
पगडंडियाँ फिसलन भरी
लंबी और दुरूह थी कि
कदम रखने के सारे प्रयास विफल हो गए।
हँसती हुई छवि तुम्हारी
समा गई
दीपक की उदास पीली लौ में।
मेंरे बस में हमेशा की तरह कुछ नहीं था
मैंने देखा,
सपनों का मुरझा जाना
खुशबुओं का अपने पुराने रास्ते को बदल लेना।
जीवन राग का वो सभी धुनों का भूल जाना
जिनके भरोसे
इसी दुनिया में एक दुसरी
समानांतर दुनिया बसाई जाती है।