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ग़ालिब / त्रिलोचन
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ग़ालिब ग़ैर नहीं हैं, अपनों से अपने हैं ।
- ग़ालिब की बोली ही आज हमारी बोली
है । नवीन आँखों में जो नवीन सपने हैं
- वे ग़ालिब के सपने हैं । ग़ालिब ने खोली
- गाँठ जटिल जीवन की । बात और वह बोली
- आप तुली थी; हलकेपन का नाम नहीं था ।
- सुख की आँखों ने दुख देखा और ठिठोली
- की, यों जी बहलाया बेशक दाम नहीं था
- उनकी अंटी में । दुनिया से काम नहीं था
- लेकिन उनको साँस-साँस पर तोल रहे थे ।
- अपना कहने को क्या था । धन धाम नहीं था ।
- सत्य बोलता था जब-जब मुँह खोल रहे थे ।
- ग़ालिब होकर रहे, जोत कर दुनिया छोड़ी
- कवि थे, अक्षर में अक्षर की महिमा जोड़ी ।