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ग़ुम लिफ़ाफ़ों की तरह शहर-दर-शहर फिरना / विजय किशोर मानव
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इस गांव में बाज़ों के घोंसले बने हैं क्यों
हर शाम कुछ ही लोगों के जलसे मने हैं क्यों
उफ़ कर तो सकते हैं ये जिबह होने से पहले
सर क़त्लगाह में झुकाए मेमने हैं क्यों
चेहरों पे इश्तहार लगे जिस्म पर भभूत,
हर आदमी के हाथ ख़ून से सने हैं क्यों
चेहरों से मुंह छिपाए फिर रहे हैं दुबकते,
ये ख़ौफ़ खाए से तमाम आईने हैं क्यों
ये आग का जलसा था यहां धूप के घर में
साज़िश नहीं है कोई तो बादल घने हैं क्यों