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ग़ैर की छोड़ो हमी ख़ुद हम नहीं / सूरज राय 'सूरज'
Kavita Kosh से
ग़ैर की छोड़ो हमी ख़ुद हम नहीं।
इश्क़ जैसा आत्मघाती बम नहीं॥
आँख में पानी पराए दर्द में
अब कोई गंगा कोई ज़मज़म नहीं॥
माँ गई बाबूजी गूंगे हो गए
घर में अब ख़ंजर बचे मरहम नहीं॥
भूख़ जब हो द्रौपदी, तृप्ति किशन
एक चावल का भी दाना कम नहीं॥
साथ उम्मीदों के सपने भी मरे
मुफ़लिसी से बढ़के कोई सम नहीं॥
अपशगुन उस घर की इक-इक ईंट में
एक बच्ची की जहाँ छमछम नहीं॥
दम्भ से देखा था "सूरज" को कभी
अब दिया भी देखने का दम नहीं॥